खंडेलवाल समाज संत श्री सुन्दरदास जी (सन 1596 से 1689) का जन्म -दौसा स्थित बुसरो का ढूंढा,व्यास मोहल्ला में बुसर गोत्र परिवार में मिति चैत्र नवमी को दोपहर को 1653(संवत वर्ष ) में हुआ। आपके पिता का नाम परमानन्द तथा माता का नाम 'सती' (आमेर सोखिया परिवार )था।
विश्वबन्धुत्व के संदेशवाहक, मानवजाति के दिग्दर्शक, विश्व विभूति, महान सन्त व कवि शिरोमणि दादूजी के शिष्य श्री सुन्दरदास जी का स्थान आध्यात्मिक, साहित्यिक, सामाजिक, धार्मिक आदि क्षेत्रों में सूर, तुलसी, कबीर व नानक के समतुल्य व कुछ विषयों में उनसे भी उच्च है। उन्हें द्वितीय शंकराचार्य व आचार्य के रूप में भी माना गया है। जिस प्रकार रामचरित मानस के साथ गोस्वामी तुलसीदास का नाम अमर है उसी प्रकार हिन्दी साहित्य के अमर ग्रंथ ज्ञान समुद्र, सुन्दरविलास तथा अन्य ग्रंथों (कुल 48 ग्रंथ) के रचयिता तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में अमर नाम पाने वाले साधक, महान सन्त, धर्म एवं समाज सुधारक व कवि शिरोमणि श्री सुन्दरदास जी है ।
दादू सम्प्रदाय की प्रचलित मान्यता के अनुसार सन्त सुन्दरदास जी दादूदयाल जी के वरदान से चोखा साहूकार के घर उत्पन्न हुए थे। दादूजी जब आमेर में प्रवास पर थे तब एक दिन उनके परम शिष्य जग्गाजी रोटी व सूत मांगने शहर गये। जब वे अपने फकीरी बोल बोलते हुए कन्या सती के घर के आगे से गुजर रहे थे दे माईसूत, हो तेरे पूत तो सती उस समय सूत कात रही थी। सती ने बाहर आकर जग्गा जी को आवाज देकर कहा लो बाबाजी सूत तो जग्गाजी ने कूकड़ी लेकर उत्तर में कह दिया हो माई तेरे पूत और वे आश्रम लौट आये।
दादूजी अन्तर्यामी थे तथा उन्होंने जान लिया था कि जिस लड़की के भाग्य में पुत्र नहीं था उसे जग्गाजी पुत्र का वचन दे आये। दादूजी ने जग्गाजी से कहा कि आज तो तुम ठगा आये । अब अपने वचन को सत्य करने के लिए जाओ। जग्गाजी के होश उड़ गये। उन्होंने कहा जो आज्ञा परन्तु सदैव आपके चरणों में ही रहूँ । दादूजी ने कहा ऐसा ही होगा। जग्गाजी ने ऐसा ही किया। कन्या सती के विवाह के कई वर्ष बाद जग्गाजी शरीर त्याग कर सती के गर्भ से सुन्दरदासजी के रूप में अवतरित हुए। यह एक अलौकिक घटना थी ।
संवत् 1659 में जब दादूजी दौसा में पधारे तब सुन्दरदासजी 6-7 वर्ष के थे। उनके माता-पिता भक्तिपूर्वक दर्शनों के लिए दादूजी के पास गये तथा सुन्दरदासजी को उनके चरणों में रख दिया। दादूजी ने बालक के सिर पर बड़े प्यार से हाथ रखकर कहा कि 'सुन्दर तू आ गया' । तभी से बालक का नाम सुन्दरदास पड़ा और तभी से सुन्दरदासजी उनके शिष्य हो गये। फिर दादूजी और टहलड़ी (दौसा) के स्थानधारी दादू शिष्य जगजीवनजी के साथ नरायणा कस्बे में आये। यहाँ संवत् 1660 में दादूजी का परमपद हो गया तथा जगजीवन जी के आदेश पर वापस टहलड़ी आ गये । सुन्दरदासजी ने छोटी अवस्था में ही दादूजी से दीक्षा व आध्यात्मिक उपदेश पा लिया था। पूर्व जन्म के संचित ज्ञान के कारण वे बड़े ही चमत्कारी और होनहार बालक थे। जगजीवन जी के सत्संग से वे दादूवाणी सिख कविता लेखन से सबके प्रिय हो गये थे.